साहित्यिक क्लोन का सारस्वत सम्मान
कवि कर्म कठोर महातप है। गुण, धर्म, प्रयोजन, रीति को जाने बिना प्रतिभा एवं अभ्यास के अभाव में काव्य रचना हथेली दूरर्बादल उगाने जैसा निष्फल प्रयास है। काव्य रचना की नाकाम कोशिशें ‘ क्लोन ’ (नकल) को जन्म देती है। फिर तो जैसे–तैसे तुकबंदी को कविता मान लेने की सहज प्रवृत्ति तथा सुकवि बनने की घोर लिप्सा साहित्य के गंगाजल में प्रदूषण घोलने और उसे दूषित करने का काम करती हैं। दैवात तथा कथित कवि का स्वर अच्छा है तो क्या कहना? कविता रचना साधना है परिश्रम, प्रतिभा, पुरुषार्थ एवं सघन अनुभूतियाँ कवि को सफल बनाती हैं। कोई भगीरथ ही भागीरथी को लोक कल्याण के लिये धरातल पर उतार सकता है।
" साहित्य सौरभ " विभिन्न अंचलों के उन नये–पुराने भगीरथ साहित्यकारों को जो सत्साहित्य लिखते हैं किंतु परिस्थिति जन्य कारणों से अप्रकाशित एवं अप्रचारित हैं उनको प्रचारित, प्रसारित एवं प्रेरित करने के लिए कटि बद्ध है। हम उन्हें रचनाओं के लिये सादर आमंत्रित करते हैं।
डॉ. ईश्वरचंद्र त्रिपाठी साधनाशील, सत्यानवेषी चिंतक एवं विचारक हैं। साहित्य जगत में "क्लोन" संबंधी उनके विचार सामयिक तथा स्वागतार्ह हैं।
** क्लोन = ( नकली, जाली, प्रतिरूप ) **
सत्य परिभाषाओं की सीमा में नहीं आ सकता, क्योंकि परिभाषाएं कुछ निश्चित शब्दों के मेल-जोल से बनती हैं और शब्द कभी भी अनुभूतियों की पूर्ण अभिव्यक्ति देने में समर्थ नहीं हो सकते। सत्य को सुना या सुनाया नहीं जा सकता। इसे केवल जिया जा सकता है। साहित्यकार इसी सत्य को जीते हुए अनुभूतियों का प्राण और शब्दों का शरीर लेकर समाज में उतरता है। इसीलिए मानवता का यह सबसे अग्रणी प्रतिनिधि सामाजिक संत के रूप में जो कुछ भी परोस जाता है, उसे समाज अपनी पुतलियों की पालकी में उठा लेता है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है वह किसी भी दशा में साहित्य नहीं हो सकता। हाँ वह साहित्य का 'क्लोन' अवश्य हो सकता है। जनश्रुति है कि जिसने पिछले जन्मों में मोतियों का दान किया होगा, उसे ही साहित्य सृजन का दुलर्भ अवसर प्राप्त होता है। ऐसा भी कहा जाता है कि जब खानदान में कई पुस्तों का पुण्य इकट्ठा होता है तो वहाँ कोई साहित्यकार जन्म लेता है। उसे ही पल दो पल सत्य के सानिध्य में जीने का सुअवसर प्राप्त होता है। इसी सत्य की अनुभूति को अपनी शाब्दस साधना से सुसज्जित कर वह मुक्त कंठ से समाज में अवदान करता है। विदित हो कि इसी सत्य समाहित साहित्य की संजीवनी पीकर एक प्राणवान पवित्र समाज निर्मित होता है। इसमें देश, काल, परिस्थिति के हस्ताक्षर से इनकार तो नहीं किया जा सकता, किन्तु यह भी सत्य है कि 'सत्य तो सत्य' ही होता है।
चेतना की सूक्ष्मतम यात्रा को दर्शन ने आत्मसात किया और दर्शन के साथ रागात्मक अनुभूतियों को गेय बनाकर साहित्य ने समाज को संस्कारित किया। प्रान्जल सौन्दर्य का अल्हड़ आकषर्ण दैन्यता की करूण पुकार तथा ढलते सूरज के वैराग्य बोध में हिचकोले खा-खाकर साहित्यकार, साहित्य के स्नेहिल पूत तन्दुओं से समाज के सृजन का ताना-बाना बुनता हुआ ब्रह्म सहोदर बन बैठा विगत कुछ दशकों में विज्ञान ने जितना भौतिक विकास किया उतना पिछली कई शताब्दियों में नहीं हो सका।
परिणामतः अन्तस की गहनता में बैठे दर्शन और जड़ चेतन के मध्य तारतम्य स्थापित करने वाला साहित्य दोंनो ही विज्ञान के परूष प्रमाणवाद के सम्मुख मझोले पड़ गये। चिन्तन-मनन, अनुभूति अभिव्यक्ति की रागात्मक साधना आलस्य और विकास की सहचरी बन गयी। चेतना की सूक्ष्मतम दार्शनिक यात्रा और निष्कलुष प्रेम की रसवन्ती में नहाया साहित्य वैज्ञानिक चिग्घाड़ के सम्मुख सहम गये। वेद की ऋचायें, कुरान की आयतें, गीता का ज्ञान, सुकरात और मीरा का विषपान तथा कबीर की अनहदनाद वैज्ञानिक भौतिकता के महाकाय में गुम हो गये। पूरा का पूरा मनुवंश मशीन बन गया और अपनी धरती माँ का मिट्टी का घर, कारखाना विज्ञान अपनी उच्चतम यात्रा में भी मनुष्य की मनुष्यता तो नहीं बना सका अलबत्ता उसका क्लोन अवश्व बना दिया। हर जगह 'क्लोन' संस्कृति का बोलबाला हो गया एक अदद वास्तविक इन्सान मिलना असम्भव सा हो गया। सत्य की जमीन पर 'क्लोनीकरण' की काई छा गयी। हर जगह अपनी नियति में नहीं औरों के क्लोन बनने की होड़ लग गयी। इस आडम्बर में मौलिकता का चीरहरण किसी से छिपा है क्या। साहित्यिक परिक्षेत्र भी इसके लिए उर्वर साबित हुआ अल्प साधना से विराट सफलता साहित्य की वैज्ञानिकता बन गयी और इस चकाचौंध में हर क्लोन' यथार्थ को मुँह चिढ़ा रहा है। एक दमयंती, पाँच-पाँच नल वरमाला के लिए सिर झुकाये खड़े हैं। राहु-केतु शनि आदि सभी नल का 'क्लोन' बनकर खड़े हो गये। बेचारा वास्तविक नल.....। यहाँ तो यत्र-तत्र कोई एक साधक है जो एक हजार साधक के 'क्लोन' खड़े हैं।
सत्य को जिया नहीं प्रेम को पिया नहीं, पीर को जाना नहीं, आँसुओं का आर्तनाद सुना नहीं, पिंजरे और परिन्दे के सम्बन्ध में अनुभूति न हई आदि-आदि, लेकिन साहित्यकार हैं तो हैं। विज्ञान की भौतिक छाया ने साहित्य को कर्कश बना डाला। यहाँ सुनने की दूषित परम्पराओं ने कहने के सारे वाक्य बदल दिये। येन-केन-प्रकारेण सफलता ही साहित्य का मानदण्ड बन गयी, जबकि पराजय और मृत्यु का अहोभाव से स्वागत करने वाला ही असली साधक होता है, किन्तु आज पद-प्रतिष्ठा, छल-छद्म ये सारे हथकण्डे साहित्य का 'क्लोन' गढ़कर समाज को धोखा दे रहे |
इसमें दो राय नहीं कि माँ सरस्वती के पवित्र मंदिर में जाने का हर व्यक्ति को बराबर अधिकार है, लेकिन वैरागी और बधिक दोनों बराबर नहीं हो सकते। सिद्धार्थ को बुद्ध बनने के लिए बुद्धत्व की यात्रा से गुजरना ही पड़ेगा अन्यथा की दशा में वे शुद्धोधन के पुत्र यशोधरा के पंति और राहुल के पिता के अलावा कुछ नहीं हो सकते । समाज राजकुमार सिद्धार्थ को नहीं बुद्धत्व के नाते बुद्ध को प्रणाम करता है। यहाँ सिद्धार्थ ही नहीं देवदत्त भी बिना बुद्धत्व प्राप्त हुए बुद्ध बनकर बैठ गये, और प्रवचन करने लगे। इसमें अंगुलिमाल की चाँदी कट रही है। साहित्य को 'क्लोनीकरण' ने सबसे अधिक शर्मसार किया है। ऊपर से नीचे तक हर जगह यह आडम्बर सहज सुलभ है।यहाँ धन्यवाद राजनेताओं को देना ही पड़ेगा कि वे इस अभिनय में खुद किरदार न निभाकर अपने चमचे कवि 'क्लोन' को श्रीमुख कर सुखानुभूति कर रहे हैं।
लेकिन जिस दिन साहित्यिक पवित्रता उनकी समझ में आ जायेगी तो या तो वे नेता नहीं रह जायेंगे अथवा साहित्य को अपनी पैतृक सम्पत्ति घोषित करवा लेंगे। यहीं छोटे से लेकर बड़ा अधिकारी वर्ग अच्छी तरह से इस सारस्वत सुख को भोग रहा है। इब्राहिम लोदी की जीवनी और गणित का फार्मूला रटने वाले लोग खानदान सहित वेदव्यास सम्मान से सम्मानित होने लगे। डंडा फटकार गोत्र के लोग आदि कवि के क्रौच वध पर उपजी करूणा पर भाष्य लिख रहे हैं। आकाशवाणी दूरदर्शन के परिसर में झाडू लगने वाले से लेकर रोडवेज में ग्रीस ढोने वाले या हाइडिल के लाइनमैन सब वाणी के वरदपुत्र बने डाल-डाल फांद रहे हैं। जिन्हें अनुभूति एवं अभिव्यंजना का वर्तनी बोध नहीं है, वे मम्मट के पड़ोसी बन बैठे। सरकारी तंत्र ने पूरे रचना संसार को विषाक्त कालिन्दी बना दिया। कौन कहे लाख टके की बात कि साहित्य अभिनय एवं आडम्बर के लिए नहीं है। यहाँ जानहि तुमहि तुमहि होई जाई की संस्कृति चलती है। 'क्लोनीकरण' की सभ्यता नहीं। आलोचकों और समीक्षकों ने तो और भी इस संस्करण को हवा-पानी दिया। कन्धे पर कलम लादकर दूसरे की मौलिक रचनाओं के मुखापेक्षी ये कमेन्ट्रेटर आचार्य शुक्ल और डॉ. रामविलास शर्मा की ओर से सम्भाषण करते हैं, जबकि इन्हें मालूम है कि इन प्रगल्भ रचनाकारों के पास आलोचना के अतिरिक्त वृहद् रचनाकोष है। वे विमर्श बाजों की तरह केवल साहित्यिक मुक्केबाजी नहीं करते थे, अपितु वे अनुभूति के अमर साधक थे।
सच कहूँ नयी कविता की नीरसता और विमर्श बाजों की कर्कशता ने सच्चे साहित्य पर तालिबानी हमला किया है। सत्यम् शिवम्-सुन्दरम् की - स्थापना करने वाला साहित्य आत्मप्रशंसी अखाड़ा बन गया। पूरे साहित्यिक पाठ्यक्रम से रासायनिक प्रयोगशाला की बू आने लगी।
इसमें प्रकाशन और प्रसारण वाले भी पीछे नहीं रहे। अर्थशक्ति से प्रकाशन स्थापित कर बड़े साहित्यकारों के रहनुमा बन गये। जिन्हें भामाशाह का धर्म निभाना चाहिए वे राणाप्रताप का भाला लेकर चेतक पर सवार हो गये। और आगे सामाजिक नायक की भूमिका में अपेक्षित मीडिया में बड़े मियाँ, छोटे मियाँ, नन्हें मियाँ सभी आला दर्जे के कलमकार ही हैं। संवाददाता से लेकर पत्रकार तक उड़नतस्तरी बनकर रचना के भ्रमाकाश में तैर रहे हैं। अगर 'चीफ ब्यूरो' हैं तो क्या कहने हैं। महाप्राण निराला का निरालापन भी अपनी वास्तविकता में उतनी अकड़ में नहीं रहा होगा, जितना ये साहित्यकार के क्लोन रहते हैं।
इलेक्ट्रानिक मीडिया में नंगापन, भोड़ा हास्य, वाह क्या बात है, बहुत खूब वाह कवी जी वाह....ही सम्पूर्ण साहित्य है| इनको कौन बताये कि प्याज के छिलके उतारने वाले मूल का अंकुरण नही समझ पाते। इसके लिए साधना की गहराई में उतरना होगा। लेकिन वर्तमान में इस 'क्लोन साहित्य' के सम्मुख साधना प्रसूत साहित्य का कोई पुरसाहाल नहीं है।
बरबस ' राहगीर राजेन्द्र ' की ये कालजयी पंक्तियाँ कौंध जाती हैं -
हैं चना चाटते वेदव्यास
फांका करते हैं कालिदास ।
अभिनन्दन पाते अभिनेता,
साहित्यकार घूमें उदास ।
लेखक - डॉ० ईश्वरचन्द्र त्रिपाठी
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