प्यार की जो मदिरा छलकी
बदला हुआ सूरज मौसम का, बदली हुयी आँखों के नाम हुआ
यह सत्य है ‘ कोमल ’ दुनिया में, जो भी खाली हुआ वह खाम हुआ
पर प्यार की जो मदिरा छलकी, जिस जाम से खाली न जाम हुआ ||
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प्रेम का दावा सभी करते पर, पीर को पीर कहाँ सहती है
रूह को छोड़के देह की भूख तो, राज समाज को ही दहती है
' कोमल ’ प्रेम अबोध यहाँ मिट, जाने की बाजी लगी रहती है
प्रेम की धारा विकास की धारा है, नीचे से ऊपर को बहती है ||
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यहाँ द्वेष सरी भरी चौड़ी मिली, पर प्रेम तरी मिली चौड़ी नहीं
शठ शत्रुता दौड़ लगाती रही, पर मित्रता वक्त पे दौड़ी नहीं
जल बीच बहाव में देह बही, कभी मीन के मानिंद पौंड़ी नहीं
तन के तो खजाने में लाखों भरे, मन के ही खजाने में कौड़ी नहीं ||
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सच तो है कि प्रेम के बाद यहाँ, दुनिया में कोई उपहार नहीं
उस पेड़ से छावँ की आशा ही क्या, जिसमें कुछ पात औ डार नहीं
कहने को धनी बहुतेरे पड़े, जिनमें कुछ ‘ कोमल ’ सार नहीं
वह धर्म निभायेगा कैसे भला, जिसके मन में विसतार नहीं ||
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जाने कभी अनजाने कभी, कभी दोनों से पीर सँवारी गयी
नैनों का नीर ही पीते रहे, इसकी न कभी भी खुमारी गयी
‘ कोमल ’ ऐसे पियक्कड़ों से, मयखाने को ठोकर मारी गयी
किन्तु किसी दिल में न कभी, इनकी तसवीर उतारी गयी ||
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प्यार उपासना है मन की, कुछ पागल जैसे दिखा करिये
खुश्बू सी शोख मोहब्बत का, एहसास से स्वाद चखा करिये
प्यार की राह में युँ चलने, का न कोई सलीका सिखा करिये
कागज की हैं कच्ची दीवालें, आशिक का न नाम लिखा करिये ||
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जिस बिन्दु में सागर हो न भरा, उस बिन्दु का कोई भी अर्थ नहीं
जिस फूल में छायी सुगन्ध न हो, उस फूल का कोई भी अर्थ नहीं
जिस मेध में हो बिजली न भरी, उस मेघ का कोई भी अर्थ नहीं
जिस प्यार में ‘ कोमल ’ दर्द न हो, उस प्यार का कोई भी अर्थ नही ||
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सबके उर में है कहीं न कही, कुछ पीर की फाँस धँसायी गयी
पर दर्द न पंछी का जाना गया, तरकीब से कैसे फँसाई गयी
बुझते हुये ‘ कोमल ’ दीपक की, कभी बाती नहीं उकसायी गयी
छल – छद्म के लोग बनाये महल, कहीं प्रेम पुरी न बसायी गयी ||
रचनाकार :- कोमल शास्त्री
🙏
अत्यंत सधे हुए शब्द है कोमल, कोमलता नही जात बखानी, अनुराग गुप्त, ललाम
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत आभार🙏
Deleteशानदार
ReplyDeleteधन्यवाद 🙏
Deleteशानदार
ReplyDelete🙏
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