माया खेलै खेल
||1||
बसि ईसर औ जीव बिच , माया खेलै खेल
जे ते उबरै जाल से , परे भगति के मेल |
||2||
फिकिर फरौथी फेंकि कै , मन कर ताल बजाव
' कोमल ' जिउ परतेजि कै , राखु न मान मनाव |
||3||
खुलै कपट कै पट जहाँ , माया होय उधार
मुलु अन्हरै अरचैं उहै , जामे बिसय बिकार |
||4||
बड़े - बड़न काँ गारि गै , माया कै फरफन्द
का बरनी गिरहस्थ काँ , खोइया ह्वइगै सन्त |
||5||
मायापती महेस काँ , माया दई नचाय
देव निबल केव होत तौ , ' कोमल ' जात हेराय |
||6||
मुँह भै माटी लेय ऊ , जेकरे चस्का लाग
जे परिगै परपंच मा , चौन्हियान जेस नाग |
||7||
' कोमल ' दिढ़ ह्वइकै कहै , रहै चहै फरकन्त
अइस झँकोरा देय ई , उखरै पाँव तुरन्त |
||8||
केव ठगिनी फुँकनी कहै , केव मुँह लगी महेस
मुला प्रकृति के नाँव से , जानी जाय बिसेस |
||9||
पदुम पात माया कही , जल जानौ जगदीस
पति राखै जलजात कै , मुला नात छत्तीस |
||10||
तीन नरक के द्वार हैं , तीनहि रुज परिवार
तीन गुनन कै जुति बनी , तीन लोक बिस्तार |
||11||
राकस कुल मा एक भा , सबसे बड़ अपवाद
जन्मा पूत कयाधु के , नाँव परा पहलाद |
||12||
काल चक्र चरखी मनो , माया ताको डोर
जिउ पतंग सदृस उड़ै , साँसा पवन बटोर |
||13||
नाहिं साँच पै साँच यस , मिथ्या जगत लखात
' कोमल ' नटई फारि कै , ज्ञानी जन अललात |
||14||
सबै करत बा झूमि कै , माया कै उपयोग
देव दनुज औ मनुज सब , रहे यही काँ भोग |
||15||
माया पति कै कृत्य है , लीला येकै नाँव
सदा रही है औ रहे , लीला पति के बाँव |
रचनाकार :- कोमल शास्त्री
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