गंगा के किनारे

गंगा के किनारे













वनवास जा रहे थे जब राम - लखन सीता

गंगा के किनारे पे पहुंचे परम पुनीता |


राम ने केवट से कहा तब यूँ बुलाकर

पार जाना है हमें , नइया को ला इधर |


आवाज सुनी राम की , केवट सम्हल के बोला

कैसे ले आऊँ नइया भगवन है यक झमेला |

मेरी काठे की नाव तेरे जादूगर पावँ, यही डर लागे राम जी,

कैसे ले आऊँ नाव मैं |


जब चरण - रज से पत्थर हो नारी

फिर तो लकड़ी की नइया हमारी

छुओ नइया अगर, होवे नारी दिगर - यही , डर लागे राम जी,

कैसे ले आऊँ नाव मैं |


घर में घरनी है मेरी निहारो

बात क्या होगी कुछ तो विचारो

नाव नारी हो ऐंठ, होवे सौतिन से भेंट, यही डर लागे राम जी,

कैसे ले आऊँ नाव मैं |


नाथ! बच्चों का है ये सहारा

इसी नइया से होता गुजारा

इसके हमसर यहाँ, रोजी पाऊँ कहाँ, यही डर लागे राम जी,

कैसे ले आऊँ नाव मैं |


घर में बढ़ जाय गर एक नारी

मेरा खर्चा चले कैसे भारी

कौन झंझट ले मोल, बात कहता जी खोल, यही डर लागे राम जी,

कैसे ले आऊँ नाव मैं |


पार जाना जो ' कोमल ' हो भगवन

पहले मुझसे धुला लो चरन

बिना धोये चरन, नाव लायें न हम, यही डर लागे राम जी,

कैसे ले आऊँ नाव मैं |


सुनके केवट की गम्भीर बानी

कहा राम ने ले आओ पानी

किया शंका को दूर, लाया नैया हुजूर, बोला आओ मेरे राम जी,

बैठो पहुँचाऊ तुम्हें पार मैं |




रचनाकार :- कोमल शास्त्री



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🙏

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